Sunday, June 29, 2008

डा. हरिकृष्ण देवसरे और श्रीमती विभा देवसरे का सम्बोधन




केन्द्रीय विद्यालय के प्रशिक्षण शिविर में डॉ. देवसरे...

केन्द्रीय विद्यालय के स्नातकोत्तर हिंदी शिक्षकों के सेवा कालीन प्रशिक्षण शिविर (केन्द्रीय विद्यालय न02 आगरा) में डा. हरिकृष्ण देवसरे और श्रीमती विभा देवसरे का आना हम सभी के लिए एक अभूतपूर्व अनुभव रहा. डॉ. देवसरे उन विरले साहित्यकारों में से हैं जो समाज के प्रति गहरे दायित्व बोध को समझते हैं और विशेषकर बालसाहित्य के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहकर ,एक नवीन पीढी के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध हैं.
'बालसाहित्य है क्या ?' इस मूलभूत प्रश्न को उठाकर डॉ. देवसरे जी ने अपना उदबोधन आरम्भ किया.उन्होंने कहा कि हम जो लिखें,ज़रूरी नहीं कि बच्चे वही पढ़ें, वास्तव में बच्चे स्वयं जिसे अपनी रूचि के आधार पर पढ़ने के लिए स्वीकार कर लें वही बालसाहित्य है.आज के बच्चे जागरूक हैं और हम उन्हें कुछ भी पढ़ने के लिए बाध्य नहीं कर सकते .ऐसे में साहित्यकार का उत्तरदायित्व और बढ़ जाता है .आज के लेखकों और प्रकाशकों को बच्चों की रूचि और परिवेश को ध्यान में रखकर नए आकर्षक और आधुनिक कलेवर की पत्रिकाएँ निकालनी चाहिए.आज बच्चों को परियों के कल्पनालोक में और राजा-रानी की कपोल कथाओं में बहलाना व्यर्थ है ,ये बच्चे सूचना प्रौद्योगिकी के संपर्क में रहते हैं ,इन्हें अन्तरिक्ष की ऊंचाइयाँ और अतल की गहराइयाँ आकर्षित करती हैं .अतः उनको मिलने वाला साहित्य भी आधुनिकता -बोध और वैज्ञानिकता पर आधारित होना चाहिए.

आज के अभिभावकों को सचेत करते हुए उन्होंने कहा कि यदि आप अपने बच्चे को भारतीय इतिहास,संस्कृति और साहित्य से जोड़े रखना चाहते हैं तो आपको उन्हें पाठेतर बालसाहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए . पुराण ,रामायण,महाभारत आदि की कथाएँ भी छोटे-छोटे रोचक प्रसंग लेकर उन्हें पढाई जा सकती हैं. बालसाहित्य या अन्य पाठेतर किताबें लेना धन का अपव्यय नहीं है बल्कि हमें त्यौहार और जन्मदिन जैसे अवसरों पर अन्य उपहारों के साथ पुस्तकें भी उत्साह से खरीदकर देनी चाहिए .पुणे में हुए एक अधिवेशन की कार्यशाला का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि मराठी के बड़े लेखक बच्चों के एक समूह को अपनी किताबें पढ़ने के लिए देते थे ,फिर उन बच्चों से पुस्तक समीक्षा करवाई जाती.बच्चों की प्रतिक्रियाएँ वास्तव में अद्भुत और अभूतपूर्व होती थीं जिसमें वे बड़े से बड़े लेखक की धज्जियाँ उड़ा देते थे.इस तरह की कार्यशालाएँ आयोजित कर या प्रभात फेरी और मटकी में किताबें भरकर उन्हें फोड़ने की प्रतियोगिता आयोजित कर के बच्चों का रुझान किताबों की ओर बढ़ाया जा सकता है.
आज के व्यस्त जीवन में अभिवावक स्वयं तो बच्चों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं परतु उनसे नैतिक ओर संस्कारवान होने की अपेक्षा करते हैं .यह कैसे संभव है ?हमें अपने उत्तरदायित्वों को समझाना होगा,कोरी नैतिकता का पाठ पढ़ाने से पहले बच्चे को आज के हिंसात्मक -ईर्ष्या-द्वेष के माहौल से परिचित करना होगा.उसे बताएँ कि नैतिक ये है और अनैतिक ये,सच ये है और झूठ ये है-फिर समय ,परिस्थिति और विवेक के आधार पर वे जो ठीक समझें करें . आज के बच्चों को आपकी पीठ की चिकनाहट नहीं चाहिए ,उन्हें खुरदुरे यथार्थ से रूबरू होने दें .
अंत में आज के बालसाहित्यकारों को सचेत करते हुए वे बोले कि आज जब सूचना प्रौद्योगिकी इतनी तेजी से प्रगति कर रही है,हमारी चुनौतियाँ और बढ़ जाती हैं .हमें अपनी पुस्तकों और पत्रिकाओं के कलेवर को इतना आधुनिक और इतना आकर्षक बनाना होगा कि वे कंप्यूटर और टेलिविज़न का विकल्प बन सकें.
डा.देवसरे के अभिभाषण को पूरा करते हुए श्रीमती देवसरे ने भी अंत में शिक्षकों को संबोधित करते हुए कहा कि आप संवेदनशील विद्वज्जन हैं अतः आप साहित्य के माध्यम से बच्चे के जीवन को सुधार सकते हैं .महिलाओं के दायित्व पर विशेष बल देते हुए उन्होंने कहा कि आपकी क्षमताओ को पुरुष वर्ग नहीं संभाल सकता है.अतः बच्चे के भीतरी मन के संसार को आप ही संवार सकती हैं ,उसे खोने मत दीजिये ,वही कल का भविष्य हैं.साहित्य मन को अच्छी तरह खंगालता है ,हमें उसके सहयोग से देश के भावी निर्माताओं का निर्माण करना है.
इस सारगर्भित उदबोधन के उपरांत शिविर निदेशक श्री रामेश्वर दयाल काम्बोज ने वक्ताओं का धन्यवाद ज्ञापित कर आभार व्यक्त किया.

डा.ऋतु पल्लवी

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