Friday, June 27, 2008

नैतिक शिक्षा : स्वरूप समस्याएं और निदान


नैतिक शिक्षा : स्वरूप, समस्याएं और निदान

लेखक:मनमोहन लाल दुबे

प्रकाशक :समय प्रकाशन आई – 1/16, शान्ति मोहन हाउस, अंसारी

रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002

संस्करण:द्वितीय संस्करण : 2004 पृष्ठ संख्या:200 पृष्ठ,मूल्य:150/– रू

 

नैतिक शिक्षा के महत्त्व व पुस्तक के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लेखक ने अपने आमुख के प्रथम वाक्य में ही नाहिमानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित कहकर अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया है। पुस्तक का कलेवर नौ अध्यायों में विभक्त है।

प्रथम अध्याय मानव जीवन के सर्वोच्च सिद्धान्त का विवेचन करते हुए सदाचार की शिक्षा की समस्या के महत्त्व तक फैला है। इसके अन्तर्गत मानव समाज की वर्तमान स्थिति, वैज्ञानिक भौतिकवाद का संकट, धर्म और शिक्षा का संबन्ध भी स्पष्टता के साथ विवेचित किया गया है।

दूसरे अध्याय में लेखक ने नैतिकता के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए नैतिक शिक्षा को लागू करने की विधियों की भी चर्चा की है। तीसरे अध्याय में बुनियादी शिक्षा का विवेचन है, तो चौथा

अध्याय नैतिक शिक्षा की समस्याएँ सामने लाता है। पाँचवें अध्याय में बालक के नैतिक विकास का विवेचन किया गया है तथा नैतिक और अध्यात्मिक मूल्यों की अवधारणा का वैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत हुआ है

अध्याय छह में नैतिक शिक्षा को प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने हेतु सुझाव दिए है।

अध्याय सात में नैतिक शिक्षा में योग के समावेश की वकालत की गई है। अध्याय आठ में राष्ट्रीय चरित्र और देशभक्ति के निर्माण हेतु महान पुरुषों के जीवन चरित्र ;कुल 17 दिए गए हैं। अध्याय नौ में शालाओं के विभिन्न दैनिक कार्यक्रम, सामूहिक प्रार्थना, सांस्कृतिक कार्यक्रम, जयन्तियाँ एवं अन्य उत्सव की जानकारी दी गई है।

इस प्रकार कथावस्तु की दृष्टि से लेखक में नैतिक शिक्षा के लगभग सभी पहलुओं को स्पर्श किया है। वण्र्य विषय की महत्ता का औचित्य पाठक के मन में सर्वत्र बना रहता है। पुस्तक का शीर्षक अपने आप में पूर्णता को समाहित किए हुए है। विषयविवेचन में लेखक की पारंगतता बनी हुई है। सूत्रों के विश्लेषण में भी लेखक को सिद्धहस्तता प्राप्त हुई है।

भाषा सरलता व साहित्यिकता के दायरे में दिखती है। तत्सम शब्दावली के मध्य यंत्रतंत्र तद्भव शब्दों की उपस्थिति आकर्षित करती है। शब्दचयन व वाक्य विन्यास में लेखक पूर्ण सावधान दिखता है। विदेशी शब्दों के प्रयोग से लेखक ने परहेज नहीं किया है।

शैली वर्णनात्मक है। विश्लेषणात्मक शैली का भी पूरा सदुपयोग लेखक ने किया है। सूक्तिमय शैली के प्रयोग ने पुस्तक के कलेवर को प्रभावी बनाने में अहम भूमिका निर्वाह की है। कुछ सूक्तियों बड़ी ही रूचिकर बन पड़ी है। उद्दरण शैली के समावेश से लेखक ने प्रभावात्मकता को धार दी है

1. सर्वे सुखिन: संतु सर्वे सन्तु निरामया:

2. देखो ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे अन्दर है।

3.पूजे न शहीद गए तो फिर आजादी कौन बचाएगा?

फिर कौन मौत की छाया में जीवन का रस रचाएगा?

 

रस परिपाक की दृष्टि से पुस्तक में मुख्यत: शांत रस है। बीचबीच में उत्साह का स्थायी भाव वीर रस की सृष्टि कर रहा है, जो उचित ही कहा जायेगा। अलंकारों का समास प्रयोग नहीं है। फिर भी अनुप्रास के साथसाथ यंत्रतंत्र उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा व मानवीकरण तथा दृष्टान्त आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग लेखक की प्रतिभा को पुष्ट करता जान पड़ता है।

उद्देश्य की दृष्टि से पुस्तक अति मूल्यवान कहीं जायेगी। लेखक नैतिक मूल्यों

की पक्षधरता में पूरी तरह सफल हुआ है। न केवल सिद्धान्त के धरातल पर बल्कि प्रयोग ;व्यवहार की तकनीक व कमियाँ समझाकर लेखक ने राष्ट्रीय दायित्व की बखूबी संपूर्ति की है।

कागज व छपाई उत्तम कोटि की है। आवरण पृष्ठ भी आकर्षक है। मूल्य यदि 150 के स्थान पर 100 रू होता तो पुस्तक की सुलभता और बढ़ सकती थी। कुल मिलाकर लेखक का प्रयास सार्थक व सिद्ध होता हुआ दिखाई पड़ता है। पुस्तक की उपयोगिता, सार्थकता व मूल्यवत्ता असंदिग्ध है।

 

डॉ सन्तोष कुमार

;स्नातकोत्तर  शिक्षक

के वि मथुरा, रिफाइनरी नगर,

मथुरा

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