Sunday, June 29, 2008
फीचर लेखन
फीचर लेखन
बलदेव राज कालड़ा
सह निदेशक
समाचार–लेखन तथा संपादन पत्रकारिता के दो आधार हैं। समाचार–लेखन से जुड़ी एक अन्य विद्या है फीचर। फीचर जहाँ आधुनिक पत्रकारिता की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विधा है, वहीं साहित्य की भी नव–विकसित विधा बन चुकी है।
फीचर क्या है ? फीचर ऐसा रचनात्मक तथा कुछ–कुछ स्वानुभूति लेख है, जिसका गठन किसी घटना, स्थिति अथवा जीवन के किसी पक्ष के सम्बन्ध में पाठक का मूलत: मनोरंजन करने एवं सूचना देने के उद्देश्य से किया गया हो। (डेनियल आर विलियमसन, फीचर राइटिंग फार न्यूज पेपर्स) दरअसल यह अभिव्यक्ति का ऐसा रूप है जिसमें ज्ञान, कल्पना, यथार्थ, घटनाओं, चमत्कार, कौतूहल, समस्या आदि सभी कुछ भावना–प्रधान एवं रसमय गद्य बना हुआ रहता है दृश्यात्मकता इसका आवश्यक गुण है।
फीचर के लक्षण तथा स्वरूप – फीचर स्थिति का विहंगावलोकन ही नहीं करता, वह प्रश्नों का उत्तर भी देता है और अज्ञात का ज्ञान भी कराता है। फीचर मानो किसी घटना की दूरबीन से जाँच करता है। अच्छे फीचर के गुणों की जब बात करते हैं, तो उसके मूल चार आधारों पर हमारा ध्यान जाना आवश्यक है ये हैं जिज्ञासा, सत्यता, मानवीय भावना, चित्रात्मकता, स्पष्ट विश्लेषण।
डा. रामचन्द्र तिवारी ने कहा है कि फीचर लेखक अपने आँख–कान, भावों, अनुभूतियों, मनोवेगों और अन्वेषणों का सहारा लेकर उसे रुचिकर, आकर्षक और हृदयग्राही बनाता है (सम्पादन के सिद्धान्त, पृष्ठ 105)
फीचर के प्रकार – श्री विवेकी राय कहते हैं कि फीचर का वृत्त इतना विशाल है, जीवन की ही भांति वह इतना व्यापक है कि उसमें समस्त विषयों का समावेश हो जाता है।
विषयों की विविधता और उसके विस्तार की दृष्टि से फीचर का वर्गीकरण करें, तो कुछ निम्नलिखित प्रकार के वर्ग निर्धारित किए जा सकते हैं –
1.विशिष्ट घटना – जैसे – युद्ध अकाल, दुर्घटना, दंगा, आन्दोलन आधारित फीचर।
2.राजनीतिक घटनाओं पर आधारित फीचर।
3.सामाजिक समस्याओं को उजागर करने वाले फीचर।
4.वाद–विचार सम्बन्धी चिन्तनात्मक फीचर।
5.आंचलिक फीचर।
6.व्यक्ति विशेष के फीचर।
7.समाचाराधारित फीचर।
8.मेला, मनोरंजन, सभा, यात्रा सम्बन्धी – सांस्कृतिक फीचर।
9.महत्त्वपूर्ण साहित्यिक प्रकाशन आदि फीचर।
10.(सोद्देश्य फीचर )खोजपरक फीचर।
फीचर की रचना प्रक्रिया– फीचर लेखन प्रक्रिया का पहला बिन्दु तो है विषय चयन। फीचर का विषय ऐसा होना चाहिए जो लोक – रूचि का हो, लोक–मानस को छुए, पाठकों
में जिज्ञासा जगाए और कोई नई जानकारी दे। सामान्य से सामान्य विषय को चुना जा सकता है लेकिन लेखक को चाहिए कि वह उसे इस कोण से देखे कि इस विषय की उपयोगिता क्या है, पाठक उसे क्यों पढ़ेगा, इसका समसामयिक महत्व क्या है, इसमें क्या नया है या दिखाया जा सकता है।पत्र–पत्रिका के पाठक किस वर्ग के हैं? किस रुचि के हैं ?
रचना प्रक्रिया का दूसरा बिन्दु है – सामग्री संकलन। इसके लिए लेखक को विषयवस्तु के निकट जाना होता है। घटना स्थल, पर्यटन स्थल, मेला स्थल, रीति–रिवाज, रहन–सहन, वस्त्राभूषण आदि के अध्ययन के लिए उस समाज या स्थान विशेष पूरी तैयारी के साथ जाना होता है। फीचर लेखन के लिए रचना–प्रक्रिया के क्रम में जिन बातों से सुविधा हो सकती है –
1.आरम्भ – फीचर का आरम्भ प्राय: एक खाका बनाकर करना चाहिए –
(अ).किसी आकर्षक उद्धरण, काव्य पंक्तियों, किसी प्रश्न शृंृखला, दृष्टांत आदि से फीचर का आरम्भ किया जाए तो वह अच्छा बन सकताहै।
(ब).व्यक्ति के रेखाचित्र, परिचय, प्राकृतिक दृश्य, घटनांश, सम्बोधन से भी आरम्भ किया जा सकता है।
2.मध्य – मध्य में मूल विषय का उद्घाटन करना चाहिए। फीचर के लिए तो विश्वसनीयता सर्वप्रथम अनिवार्य है। सत्य को किस तरह हम सामने ला रहे हैं यह देखना जरूरी है। फीचर का मध्य भाग संतुलित, विवेचना और विश्लेषण से युक्त होना चाहिए। श्री डी. एस. मेहता कहते हैं कि फीचर में उस तथ्य को उभारा जाता है, जो महत्त्व का होते हुए भी स्पष्ट नहीं होता उसका प्रस्तुतीकरण ही फीचर के व्यक्तित्व, उसकी शक्ति और उसके औचित्य का बोध देता है। अध्ययन, अनुसंधान और साक्षात्कारों के बल पर फीचर में तथ्यों का विस्तार किया जाता है।
3.अन्त – किसी भी फीचर का अंतिम भाग एक तरह से सारांश होता है। यह आवश्यक नहीं कि लेखक निष्कर्ष गिनाए। वह नए विचार सूत्र दे सकता है जो पाठकों को सोचने को बाध्य करे।
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डा. हरिकृष्ण देवसरे और श्रीमती विभा देवसरे का सम्बोधन
केन्द्रीय विद्यालय के प्रशिक्षण शिविर में डॉ. देवसरे...
केन्द्रीय विद्यालय के स्नातकोत्तर हिंदी शिक्षकों के सेवा कालीन प्रशिक्षण शिविर (केन्द्रीय विद्यालय न02 आगरा) में डा. हरिकृष्ण देवसरे और श्रीमती विभा देवसरे का आना हम सभी के लिए एक अभूतपूर्व अनुभव रहा. डॉ. देवसरे उन विरले साहित्यकारों में से हैं जो समाज के प्रति गहरे दायित्व बोध को समझते हैं और विशेषकर बालसाहित्य के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहकर ,एक नवीन पीढी के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध हैं.
'बालसाहित्य है क्या ?' इस मूलभूत प्रश्न को उठाकर डॉ. देवसरे जी ने अपना उदबोधन आरम्भ किया.उन्होंने कहा कि हम जो लिखें,ज़रूरी नहीं कि बच्चे वही पढ़ें, वास्तव में बच्चे स्वयं जिसे अपनी रूचि के आधार पर पढ़ने के लिए स्वीकार कर लें वही बालसाहित्य है.आज के बच्चे जागरूक हैं और हम उन्हें कुछ भी पढ़ने के लिए बाध्य नहीं कर सकते .ऐसे में साहित्यकार का उत्तरदायित्व और बढ़ जाता है .आज के लेखकों और प्रकाशकों को बच्चों की रूचि और परिवेश को ध्यान में रखकर नए आकर्षक और आधुनिक कलेवर की पत्रिकाएँ निकालनी चाहिए.आज बच्चों को परियों के कल्पनालोक में और राजा-रानी की कपोल कथाओं में बहलाना व्यर्थ है ,ये बच्चे सूचना प्रौद्योगिकी के संपर्क में रहते हैं ,इन्हें अन्तरिक्ष की ऊंचाइयाँ और अतल की गहराइयाँ आकर्षित करती हैं .अतः उनको मिलने वाला साहित्य भी आधुनिकता -बोध और वैज्ञानिकता पर आधारित होना चाहिए.
आज के अभिभावकों को सचेत करते हुए उन्होंने कहा कि यदि आप अपने बच्चे को भारतीय इतिहास,संस्कृति और साहित्य से जोड़े रखना चाहते हैं तो आपको उन्हें पाठेतर बालसाहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए . पुराण ,रामायण,महाभारत आदि की कथाएँ भी छोटे-छोटे रोचक प्रसंग लेकर उन्हें पढाई जा सकती हैं. बालसाहित्य या अन्य पाठेतर किताबें लेना धन का अपव्यय नहीं है बल्कि हमें त्यौहार और जन्मदिन जैसे अवसरों पर अन्य उपहारों के साथ पुस्तकें भी उत्साह से खरीदकर देनी चाहिए .पुणे में हुए एक अधिवेशन की कार्यशाला का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि मराठी के बड़े लेखक बच्चों के एक समूह को अपनी किताबें पढ़ने के लिए देते थे ,फिर उन बच्चों से पुस्तक समीक्षा करवाई जाती.बच्चों की प्रतिक्रियाएँ वास्तव में अद्भुत और अभूतपूर्व होती थीं जिसमें वे बड़े से बड़े लेखक की धज्जियाँ उड़ा देते थे.इस तरह की कार्यशालाएँ आयोजित कर या प्रभात फेरी और मटकी में किताबें भरकर उन्हें फोड़ने की प्रतियोगिता आयोजित कर के बच्चों का रुझान किताबों की ओर बढ़ाया जा सकता है.
आज के व्यस्त जीवन में अभिवावक स्वयं तो बच्चों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं परतु उनसे नैतिक ओर संस्कारवान होने की अपेक्षा करते हैं .यह कैसे संभव है ?हमें अपने उत्तरदायित्वों को समझाना होगा,कोरी नैतिकता का पाठ पढ़ाने से पहले बच्चे को आज के हिंसात्मक -ईर्ष्या-द्वेष के माहौल से परिचित करना होगा.उसे बताएँ कि नैतिक ये है और अनैतिक ये,सच ये है और झूठ ये है-फिर समय ,परिस्थिति और विवेक के आधार पर वे जो ठीक समझें करें . आज के बच्चों को आपकी पीठ की चिकनाहट नहीं चाहिए ,उन्हें खुरदुरे यथार्थ से रूबरू होने दें .
अंत में आज के बालसाहित्यकारों को सचेत करते हुए वे बोले कि आज जब सूचना प्रौद्योगिकी इतनी तेजी से प्रगति कर रही है,हमारी चुनौतियाँ और बढ़ जाती हैं .हमें अपनी पुस्तकों और पत्रिकाओं के कलेवर को इतना आधुनिक और इतना आकर्षक बनाना होगा कि वे कंप्यूटर और टेलिविज़न का विकल्प बन सकें.
डा.देवसरे के अभिभाषण को पूरा करते हुए श्रीमती देवसरे ने भी अंत में शिक्षकों को संबोधित करते हुए कहा कि आप संवेदनशील विद्वज्जन हैं अतः आप साहित्य के माध्यम से बच्चे के जीवन को सुधार सकते हैं .महिलाओं के दायित्व पर विशेष बल देते हुए उन्होंने कहा कि आपकी क्षमताओ को पुरुष वर्ग नहीं संभाल सकता है.अतः बच्चे के भीतरी मन के संसार को आप ही संवार सकती हैं ,उसे खोने मत दीजिये ,वही कल का भविष्य हैं.साहित्य मन को अच्छी तरह खंगालता है ,हमें उसके सहयोग से देश के भावी निर्माताओं का निर्माण करना है.
इस सारगर्भित उदबोधन के उपरांत शिविर निदेशक श्री रामेश्वर दयाल काम्बोज ने वक्ताओं का धन्यवाद ज्ञापित कर आभार व्यक्त किया.
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डा.ऋतु पल्लवी
Saturday, June 28, 2008
युवा मन की उड़ान
युवा मन की उड़ान:किरण सूद
प्रकाशक:राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, जी–17, जगतपुरी, दिल्ली – 110051
पृष्ठ संख्या:215 पृष्ठ ; मूल्य:95/– रू पहला संस्करण–2003
प्रस्तुत पुस्तक खिलते यौवन के नाम समर्पित की गई है, जिसमें विकास एवं अभ्युत्थान की अनंत संभावनाएँ हैं। लेखिका ने जहाँ एक ओर अपने गहन अनुभव से जीवन यात्रा में संघर्षरत अनेक सफल युवक–युवतियों के उदाहरण देते हुए सफलता के आधारभूत तत्वों का सटीक एवं व्यावहारिक विवेचन प्रस्तुत किया है, वहीं दूसरी ओर दिग्भ्रमित एवं निराश युवा दिलों में आशा और उत्साह की नई उमंग जाग्रत करने का स्तुत्य प्रयास किया है।
वर्तमान प्रतिस्पर्धा के युग को दृष्टिगत रखते हुए पुस्तक को नौ अध्यायों में विभक्त कर विवेच्य विषय को सरल एवं प्रेरक शब्दों द्वारा बोधगभ्य बनाया गया है। प्रथम अध्याय 'जीवन लक्ष्य और महत्वाकांक्षा' के अंतर्गत मानव–जीवन की महत्ता, महत्त्वाकांक्षा का औचित्य, आत्मविश्वास एवं सकारात्मक पक्ष, महत्वाकांक्षा को निर्धारित करने वाले तत्व एवं असफलता से हार न मानने के उपायों का विशद वर्णन किया गया है।
सुदृढ़ इच्छा शक्ति से अपने भाग्य को बदला जा सकता है, यह सिद्ध किया है– हस्तरेखा विशेषज्ञ कीरो ने। यौवन निराशा या आत्मदाह का समय नहीं है। यह समय है– अपने जीवन का लक्ष्य
निर्धारित करने का एवं उसके अनुसार प्रयास करने का। साधारण योग्यता होने पर भी कोई उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। बशर्ते कि वह परिश्रमी एवं धैर्यवान हो। महत्वाकांक्षा जीवन के लिए सही मायने में टॉनिक है।
दूसरा अध्याय 'प्रभावी व्यक्तित्व का रहस्य' अपने कलेवर में निम्नलिखित बिन्दुओं को समेटे हुए है – व्यक्तित्व विकास आधुनिकता की देन, व्यक्तित्व के मुख्य गुणाधार, साक्षात्कार का महत्व, आत्म प्रस्तुति की कला, शारीरिक सौष्ठव एवं स्वास्थ्य, वेशभूषा का चयन, वार्तालाप की कला, शिष्टाचार एवं सुसंस्कृत व्यवहार, अभिव्यक्ति का माध्यम–आँखें, भय का निराकरण, सकारात्मक रूख, क्रोध पर नियंत्रण, स्थिरता एवं सक्रियता, निजी सफाई, व्यक्तिगत आदतों में सुधार, सही निर्णय की क्षमता, ईमानदारी एवं प्रतिबद्धता, तत्परता एवं समय पर काम करने की प्रवृत्ति, जोखिम उठाना एवं साहसी होना, कार्य–क्षमता बढ़ाने के प्रयास, उत्साह एवं मौलिकता, सहयोग एवं सौहार्द्र।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह सर्वमान्य तथ्य है कि आज सफलता एवं समृ्द्धि का मूल तत्व है– व्यक्तित्व। यदि आप मंत्री, उच्चाधिकारी, कुशल प्रशासक या धनी व्यवसायी बनना चाहते हैं तो इसके लिए जरूरी है – आपके व्यक्तित्व का मूल्यांकन। सफल व्यक्तियों के जीवन का रहस्य है – उनका व्यवहार कुशल होना। सफलता के लिए बुद्धि से भी अधिक आवश्यक है तुरंत सक्रिय होना और समय पर काम करना। सभी सफल व्यक्तियों में चाहे वह गाँधी हों या मंडेला मार्क्स हों या माओ, बुद्ध हों या ईसा–साहस का गुण अंतर्निहित है।
तीसरा अध्याय 'सम्प्रेषण एवं संवाद कला' अभिव्यक्ति का उकृष्ट नमूना है। मनुष्य की सफलता के लिए जरूरी है – सम्प्रेषण प्रक्रिया। शाब्दिक संप्रेषण के लिए अति आवश्यक है – स्पष्ट वाणी, संतुलित स्वर एवं भाषा का द्विपक्षीय ज्ञान। संवादकला का गु्रुमंत्र है : 'कम बोलें, जो कुछ भी कहें, और जहाँ तक हो सके, सदैव सच बोलें।' याद रहे, मौन ही आभूषण है – सफल एवं गरिमामय व्यक्तित्व का।
चतुर्थ अध्याय 'दिशाबोध एवं एकाग्रता' लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में मील का पत्थर है। इस अध्याय में यौवन : ऊर्जा का स्रोोत, यौवन का दुविधा, स्वयं को जानें, दिशा–भ्रम, दिशा–निर्देश हेतु सलाह–केन्द्र, आत्म–विश्लेषण, आत्मप्रस्तुति की कला व आत्म–परिचय, शिक्षणेतर योग्यता, व्यावसायिक योग्यता, व्यक्तिगत रुचि, मानवीय गुण, संतोष प्रगति में बाधक न बने, दिशा–बोध में सहायक : अन्तरात्मा की आवाज, भेड़चाल से बचें, सफलता के लिये एकाग्रता, विकास का अनवरत क्रम, धन साधन है, साध्य नहीं, जोखिम उठाने का साहस नामक विषयों पर प्रकाश डाला है।
सफलता एवं समृद्धि का रहस्य है अपनी क्षमता का सही ज्ञान एवं परिश्रम की प्रवृत्ति तथा जोखिम उठाने का साहस। अपनी दिशा को जानने समझने वाला व्यक्ति न असफलता से भयभीत होता है और न ही सफलता मिलने पर आराम से आँखें मूँद कर बैठ जाता है।
पाँचवाँ अध्याय 'समय–बोध एवं समय प्रबंधन समय के महत्त्व की अनूठी मिसाल है। इस अध्याय में समय का मूल्य पहचानें, समय पर्याप्त है, समय : सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संसाधन, समय की पाबंदी, समय के पाबंद कैसे बने? समय का सर्वोत्तम उपयोग, समय–प्रबंधन की कला, अंतिम तिथि का निर्धारण, समय–सूची एवं कार्य–वर्गीकरण का गंभीर विवेचन है। समय सर्वाधिक महत्वपूर्ण संसाधन है। एक पल भी व्यर्थ गँवाने का अर्थ है– सफलता के मार्ग से डिगना। प्रसिद्ध लेखक एवं इतिहासवेत्ता श्री भगवतशरण उपाध्याय अपनी समय–पाबंदी के कारण सर्वत्र सराहे जाते थे।'
छठा अध्याय 'सकारात्मक सोच एवं आत्मविश्वास' सफलता प्राप्ति की दिशा को प्रशस्त करता है। इस अध्याय की विषय वस्तु में निम्नलिखित तत्त्वों का निरूपण किया गया है – विचार की शक्ति, विकृति से कैसे बचें? नकारात्मक बातें न करें, शब्द ही शक्ति है, सकारात्मक से संपर्क करें, नकारात्मक को सकारात्मक में कैसे बदले? सकारात्मकता एवं सफलता, निराधार भय से बचें, सकारात्मक सोच की ओर कैसे बढ़ें ? आत्मविश्वास का बीज : स्वावलंबन, निरंतर आगे बढ़े, आत्मविश्वास: व्यक्तित्व का आधारस्तंभ।
आत्म विश्वास के लिए जरूरी है – स्वावलंबी होना, आत्मबल के लिए जरूरी है– अपने प्रति ईमानदारी, सकारात्मक सोच के लिए जरूरी है – आत्मबल को पहचानना। कोई भी काम हो – प्रबंधन, निर्देशन, अध्यापन, वकालत या लेखन, सभी कार्य क्षेत्र में सबसे पहले जिस गुण की आवश्यकता है वह है – आत्मविश्वास।
सातवाँ अध्याय 'निराशा एवं कुंठा से बचाव' सार्थक जीवन जीने की कला को मुखरित करता है। इस अध्याय में सहनशक्ति का अभव, तार्किक सोच का अभाव, परिवार एवं संबंध, यथार्थ का सामना करें, जीवन सुंदर है, विकल्प की खोज, सार्थक जीवन कैसे जिएँ ? पेड़ से मैत्री करें, दैनंदिनी (डायरी) लिखें, संवाद एवं सलाह परामर्श करें, कुंठा से बचें, वस्तु स्थिति को समझें और स्वीकार करें, व्यक्तित्व की पूर्णता समझें जैसे तत्वों का समावेश है। जीने की कला का अर्थ है – जो कुछ भी आपके पास है, उसका सर्वोत्तम लाभ लें और जो कुछ नहीं है, उस अभीष्ट को पाने का प्रयास करें।
आठवाँ अध्याय 'आकर्षण, प्रेम एवं आत्म नियंत्रण' संतुलित व्यवहार की शिक्षा देता है। पीढि़यों का अंतराल, बुराई से कैसे बचें ?, आकर्षण: सृजन का मूलाधार, गलत और सही की ऊहापोह, दोस्ती दबाव में न करें, मित्रता, आकर्षण एवं प्रेम, प्रेम पावन एवं प्रेरक भाव है, प्रेम एवं शारीरिक संबंध, आत्मनियंत्रण एवं संतुलन, शिष्टाचार एवं संतुलन, शिष्टाचार के आवश्यक अंग, संतुलित व्यवहार का रहस्य: सहनशक्ति, धन–व्यय और संतुलन, धन व्यय करते हुए संतुलन कैसे बनाएँ ? धन एवं प्रेम का संबंध जैसे विषय इस अध्याय में समाविष्ट किए गए हैं।
याद रहे – सर्वोत्तम मित्र है – पुस्तक। अपने साथ सदैव अच्छी पुस्तकें लेकर चलें। खाली वक्त हो तो पुस्तक पढ़ें और पुस्तक पढ़ने के लिए वक्त निकालें।
नवाँ अध्याय 'यथार्थ का सामना' युवकों को जीवन की वास्तविकता से साक्षात्कार कराने में सक्षम है। प्रस्तुत अध्याय में सच का सामना, नशीले पदाथो को कैसे छोड़ें ? सदाचार का महत्व, अपराध जगत से बचें, यथार्थ को पहचानें, यथार्थ का सामना करें जैसे ज्वलंत पक्षों का सारगर्भित विवेचन है। निश्चय ही प्रस्तुत पुस्तक प्रत्येक युवक द्वारा पठनीय एवं संग्रहणीय है।
-कैलाश चन्द्र शर्मा
राजपत्रित अध्यापक
राष्ट्रीय मिलिट्री स्कूल अजमेर 305001
गिरती मंजि़ले
गिरती मंजि़ले:चम्पा साहनी
प्रकाशक:समय प्रकाशन आई – 1/16, शान्ति मोहन हाउस, अंसारी रोड़,
दरियागंज, नई दिल्ली – 110002
संस्करण:प्रथम संस्करण : 2004; पृष्ठ संख्या:104 पृष्ठ,मूल्य:85/– रू
प्रकृति और मानव का एक अनन्य, न टूटने वाला रिश्ता है। प्रति जहाँ मानव का पोषण करती है, वहीं भूकंप, चक्रवात, सुनामी लहरें आदि आकर उसे अपनी विनाशलीला की गिरफ्त में भी ले लेती है। गुजरात में आया 26 जनवरी 2001 का भूकंप ऐसा ही एक प्रकृति का प्रकोप है। ऐसी विध्वंसकारी त्रासदी ने मानवों को अपनी लपेट में ले लिया। मकान न केवल धराशायी हुए, बल्कि शहर के शहर और गाँव के गाँव धरती में समा गए। प्रकृति की प्रकोपजनित विपदा की ऐसी घड़ी में न केवल पूरे देश के लोगों ने एकजुट होकर सहयोग दिया बल्कि दूसरे देशों ने भी सहानुभूति प्रकट की और सहयोग दिया। इस नाट्यालेख 'गिरती मंजि़लें' में लेखिका चम्पा साहनी ने इन्हीं घटनाओं का उल्लेख बड़े ही यथार्थरूप से किया है। इस नाट्यालेख में कुल आठ दृश्य हैं। प्रत्येक दृश्य एक–दूसरे से जुड़ा हुआ एवं घटना का वर्णन करने में पूरी तरह समर्थ है।
इस नाट्यालेख के माध्यम से लेखिका ने भूकंप आते ही प्रकृति में कैसा, परिवर्तन हो जाता है, इसका मार्मिक चित्रण किया है। भूकंप से पूर्व पशु–पक्षियों को इसका पूर्वाभास हो जाना, भूकंप के बाद की स्थिति लाखों जीवों का लाशों में परिणत हो जाना, बचे हुए लोगों का अपने सगे–संबंधियों से बिछुड़ जाने का दु:ख, विलाप और यह सोच कि हम भी क्यों नहीं मर गए, हमें ईश्वर ने क्यों बचाया, मानव का निराशावादी दृष्टिकोण झलकता है। इसके बाद भूचाल से क्षतिग्रस्त इलाकों ;जहाँ रेल और सड़क संपर्क टूट गया है, वहाँ हवाईमार्ग द्वारा वायुसेना के जवानों द्वारा राहत सामग्री पहुँचाया जाना, फिर मलबों के ढेर में फँसे लोगों को निकालने की कोशिश जिसके लिए कंक्रीट काटने वाली मशीनों, बुलडोजरों और हजारों मज़दूरों का सहारा लेना आदि घटनाओं का वर्णन है। इसके बाद भूकंप की चपेट से जख्मी लोगों का इलाज, आर्थिक सहायता एवं खाद्यान्न की व्यवस्था का वर्णन है तथा इन सबके निरीक्षण के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री, अन्य राज्यमंत्री और केन्द्रीय सरकार के कुछ अन्य मंत्री की सहमति से आपदा प्रबंधन समिति गठित होना एवं कुछ सदस्यों को प्रतिनिधित्व करने की जिम्मेदारी सौंपना आदि घटना का उल्लेख है। अंत में सरकार द्वारा इंजीनियर, प्लैनर और बिल्डर की सहायता से एक पुनर्वास और पुननिर्माण कमेटी गठित करना, जिसका उद्देश्य है कि भविष्य में यदि भूकंप आए तो इन शहरों, गाँवों को बिना धराशायी किए ही निकल जाए। इन भूकंप विरोधी घरों की इमारतें बोलेंगी, भूचाल आया, इसने हमें हिलाया पर हम शान से खड़ी रहीं। इन मकानों की गिरती मंजि़ले नहीं होंगी, सिर ऊँचा करके खड़ी मंजि़लें होगी।
नाट्य तत्वों की दृष्टि से यदि देखा जाए तो यह नाट्यालेख इसकी कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरता है। पात्रों का चयन कथावस्तु के अनुरूप है। कुल 21 पात्र हैं तथा कुछ अन्य पात्र भी हैं। पात्रों के अनुसार ही उनका चरित्र चित्रण हुआ है। सभी पात्र अपनी भूमिका का निर्वाह करने में समर्थ हैं। कथावस्तु देशकाल एवं वातावरण के अनुरूप है तथा मंचन योग्य है। भाषा–शैली पात्रों के बिल्कुल अनुरूप है। व्यावहारिक हिंदी भाषा का प्रयोग है। पात्रों के संवाद बिल्कुल उनके अपने संवाद प्रतीत होते हैं। इस नाट्य का उद्देश्य भूचाल की विनाशलीला के बाद सब लोगों का एकजुट होकर भूकंप विरोधी मकान बनाना एवं भूकंप की त्रासदी से बचने की प्रेरणा देना है।
अन्तत: हम कह सकते हैं कि चम्पा साहनी की यह रंचना 'गिरती मंजि़ले' निश्चय ही भूकंप जैसी विपदाओं को थामने का प्रयास है।
सुनीता कुमारी
(पीजीटी हिंदी)
केवि क्रमांक–1
ए एफ एस कलाईकुण्डा (प0बं0)
Friday, June 27, 2008
नैतिक शिक्षा : स्वरूप समस्याएं और निदान
नैतिक शिक्षा : स्वरूप, समस्याएं और निदान
लेखक:मनमोहन लाल दुबे
प्रकाशक :समय प्रकाशन आई – 1/16, शान्ति मोहन हाउस, अंसारी
रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002
संस्करण:द्वितीय संस्करण : 2004 पृष्ठ संख्या:200 पृष्ठ,मूल्य:150/– रू
नैतिक शिक्षा के महत्त्व व पुस्तक के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लेखक ने अपने आमुख के प्रथम वाक्य में ही नाहिमानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित कहकर अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया है। पुस्तक का कलेवर नौ अध्यायों में विभक्त है।
प्रथम अध्याय मानव जीवन के सर्वोच्च सिद्धान्त का विवेचन करते हुए सदाचार की शिक्षा की समस्या के महत्त्व तक फैला है। इसके अन्तर्गत मानव समाज की वर्तमान स्थिति, वैज्ञानिक भौतिकवाद का संकट, धर्म और शिक्षा का संबन्ध भी स्पष्टता के साथ विवेचित किया गया है।
दूसरे अध्याय में लेखक ने नैतिकता के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए नैतिक शिक्षा को लागू करने की विधियों की भी चर्चा की है। तीसरे अध्याय में बुनियादी शिक्षा का विवेचन है, तो चौथा
अध्याय नैतिक शिक्षा की समस्याएँ सामने लाता है। पाँचवें अध्याय में बालक के नैतिक विकास का विवेचन किया गया है तथा नैतिक और अध्यात्मिक मूल्यों की अवधारणा का वैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत हुआ है
अध्याय छह में नैतिक शिक्षा को प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने हेतु सुझाव दिए है।
अध्याय सात में नैतिक शिक्षा में योग के समावेश की वकालत की गई है। अध्याय आठ में राष्ट्रीय चरित्र और देशभक्ति के निर्माण हेतु महान पुरुषों के जीवन चरित्र ;कुल 17 दिए गए हैं। अध्याय नौ में शालाओं के विभिन्न दैनिक कार्यक्रम, सामूहिक प्रार्थना, सांस्कृतिक कार्यक्रम, जयन्तियाँ एवं अन्य उत्सव की जानकारी दी गई है।
इस प्रकार कथावस्तु की दृष्टि से लेखक में नैतिक शिक्षा के लगभग सभी पहलुओं को स्पर्श किया है। वण्र्य विषय की महत्ता का औचित्य पाठक के मन में सर्वत्र बना रहता है। पुस्तक का शीर्षक अपने आप में पूर्णता को समाहित किए हुए है। विषय–विवेचन में लेखक की पारंगतता बनी हुई है। सूत्रों के विश्लेषण में भी लेखक को सिद्धहस्तता प्राप्त हुई है।
भाषा सरलता व साहित्यिकता के दायरे में दिखती है। तत्सम शब्दावली के मध्य यंत्र–तंत्र तद्भव शब्दों की उपस्थिति आकर्षित करती है। शब्द–चयन व वाक्य विन्यास में लेखक पूर्ण सावधान दिखता है। विदेशी शब्दों के प्रयोग से लेखक ने परहेज नहीं किया है।
शैली वर्णनात्मक है। विश्लेषणात्मक शैली का भी पूरा सदुपयोग लेखक ने किया है। सूक्तिमय शैली के प्रयोग ने पुस्तक के कलेवर को प्रभावी बनाने में अहम भूमिका निर्वाह की है। कुछ सूक्तियों बड़ी ही रूचिकर बन पड़ी है। उद्दरण शैली के समावेश से लेखक ने प्रभावात्मकता को धार दी है –
1. सर्वे सुखिन: संतु सर्वे सन्तु निरामया:
2. देखो ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे अन्दर है।
3.पूजे न शहीद गए तो फिर आजादी कौन बचाएगा?
फिर कौन मौत की छाया में जीवन का रस रचाएगा?
रस परिपाक की दृष्टि से पुस्तक में मुख्यत: शांत रस है। बीच–बीच में उत्साह का स्थायी भाव वीर रस की सृष्टि कर रहा है, जो उचित ही कहा जायेगा। अलंकारों का समास प्रयोग नहीं है। फिर भी अनुप्रास के साथ–साथ यंत्र–तंत्र उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा व मानवीकरण तथा दृष्टान्त आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग लेखक की प्रतिभा को पुष्ट करता जान पड़ता है।
उद्देश्य की दृष्टि से पुस्तक अति मूल्यवान कहीं जायेगी। लेखक नैतिक मूल्यों
की पक्षधरता में पूरी तरह सफल हुआ है। न केवल सिद्धान्त के धरातल पर बल्कि प्रयोग ;व्यवहार की तकनीक व कमियाँ समझाकर लेखक ने राष्ट्रीय दायित्व की बखूबी संपूर्ति की है।
कागज व छपाई उत्तम कोटि की है। आवरण पृष्ठ भी आकर्षक है। मूल्य यदि 150 के स्थान पर 100 रू होता तो पुस्तक की सुलभता और बढ़ सकती थी। कुल मिलाकर लेखक का प्रयास सार्थक व सिद्ध होता हुआ दिखाई पड़ता है। पुस्तक की उपयोगिता, सार्थकता व मूल्यवत्ता असंदिग्ध है।
डॉ सन्तोष कुमार
;स्नातकोत्तर शिक्षक
के वि मथुरा, रिफाइनरी नगर,
मथुरा
KEY BOARD SHORTCUTS
T.G.T. (Bio.)
K.V. OEF, Hazratpur
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